उत्तराखंड कृषि मेला टेंडर घोटाला: स्थानीय ठेकेदारों की अनदेखी, बाहरियों को मिला काम।

देहरादून के गरिमा ग्राउंड में प्रस्तावित एग्री मित्र उत्तराखंड 2025 कृषि मेले को लेकर, टेंडर प्रक्रिया पर उठे सवाल

टेंडर से पहले शुरू हुआ काम, उजागर हुई बड़ी लापरवाही

देहरादून: गढ़ी कैंट स्थित गरिमा ग्राउंड में प्रस्तावित एग्री मित्र उत्तराखंड 2025 कृषि मेला अब विवादों में घिर गया है। 11 जून को रात 9:30 बजे टेंडर खुलना था, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से 9 जून से ही मैदान में जेसीबी और मजदूर काम पर लग गए थे। सवाल यह उठता है कि जब टेंडर प्रक्रिया पूरी नहीं हुई थी, तो काम कैसे शुरू हो गया।

विरोध के बाद आयोजन स्थगित, सरकारी जवाब गोलमोल

जय उत्तराखंड स्वाभिमान मोर्चा के प्रदेश उपाध्यक्ष त्रिभुवन चौहान और नेता बॉबी पंवार जब मौके पर पहुंचे तो पाया कि टेंडर खुले बिना ही ठेकेदार मैदान में कार्य कर रहा था। जब इस बारे में संबंधित अधिकारियों से जवाब मांगा गया, तो केवल गोलमोल जवाब दिए गए।

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पुलिस से नहीं मिला सहयोग, अब कोर्ट की शरण में संगठन

स्वाभिमान मोर्चा ने स्थानीय थाने से हस्तक्षेप की मांग की लेकिन जवाब मिला– “ये क्षेत्र हमारे अधिकार क्षेत्र में नहीं आता।” त्रिभुवन चौहान ने इसे “सिस्टमेटिक करप्शन की मिसाल” बताया और बताया कि अब संगठन इस मामले को हाईकोर्ट में चुनौती देने की तैयारी कर रहा है।

स्थानीय ठेकेदारों की अनदेखी, बाहरियों को मिला काम

यह संपूर्ण मामला प्रदेश के कृषि मंत्री गणेश जोशी के विधानसभा क्षेत्र से जुड़ा है। दिलचस्प बात यह है कि काम कर रहा ठेकेदार उत्तराखंड का नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश के सहारनपुर से आया है। जबकि सरकार दावा करती है कि स्थानीयों को प्राथमिकता दी जा रही है।

क्या टेंडर सिर्फ औपचारिकता थी?

जमीनी हालात को देखकर लोग पूछने लगे हैं –

  1. क्या ये टेंडर पहले से तय था?
  2. क्या सरकारी फिक्सिंग अब कृषि मेलों तक पहुँच गई है?
  3. क्या विकास के नाम पर सिर्फ दिखावा हो रहा है?

आयोजन से पहले ही स्थगन, मंत्री का आगमन रद्द

इस मेले का उद्घाटन 14 जून को केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा किया जाना था, लेकिन विरोध और खुलासे के बाद कार्यक्रम स्थगित कर दिया गया है।

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यह मामला केवल एक कृषि मेले का नहीं, बल्कि उस विश्वास और प्रक्रिया का है जिस पर लोकतंत्र आधारित है। उत्तराखंड जैसे राज्य में अगर टेंडर के बिना काम होने लगे, तो यह लोकतंत्र की नहीं बल्कि राजनीतिक खेती की नुमाइश बन जाता है।

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